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Source Siddharth Sonkar


"शरहद पर घुसपैठ आंतरिक सुरक्षा तंत्र की नाक&#

"मासूम के खुनो में नहाई जीत, जीत नही होती" मासूम तो दोनों तरफ है आखिर। हमारी ताकत का बेवजह प्रदर्शन औरो को चुनोति देती है और चुनॉति से हमेशा तकरार की स्थिति पैदा होती है। तकरार हमेशा तबाही ही लाती है, अगर हमें तबाही को रोकना है तो हमे निगरानी करनी होगी। #निगरानी उरी आतंकी हमले में शहीद जवानों के लिए श्रंद्धाजलि एवमं नीति नियामक पर आक्रोश कंही से कम होता नही दिख रहा। देश का नागरिक दो धरा में बट सा गया है। एक धरा वो है जो नितिनियामक के कूटनीतिक नीति पर भरोसा कर इस उम्मीद में बैठा है। कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान अलग थलग पड़ जाएगा। वंही एक दूसरी धरा है जो सर पर कफ़न बांधकर आक्रोश में है कि खून का बदला खून, दहशत गर्दी का जवाब उसी अंदाज़ में क्यों ना दिया जाय। जैसा की लोकसभा चुनाव 2014 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहे बर्तमान प्रधानमंत्री मोदी जी ने आश्वस्त किया था "एक के बदले दस सर"। एक भारतीय नागरिक होने के नाते और संबैधानिक अभिव्यक्ति की कोई सीमा नही है।लेकिन एक नैतिक सीमा जरूर हैं, जिसका अनुपालन सबको करना ही चाहिये। देश सुरक्षा से जुड़े फैसले नागरिक के भावनात्मक दबाव से नही लिए जाते ये बात हर नागरिक को समझनी चाहिए। राजनीति से प्रेरित जनमानस कभी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तो कभी भारत के प्रधानमंत्री का पुतला फुक रहे है। पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगा रहे है, पाकिस्तान के झंडे जला रहे है। श्रंद्धाजलि सभा हो रही है, शान्ति यात्रा निक़ल रहे है तो कंही कैंडल मार्च हो रहा है। जनभावना का सम्मान करते हुए "पाकिस्तान मुर्दाबाद" बोलने मात्र से क्या समस्या हल हो गई?. तो उत्तर मिलेगा नही, क्षणिक आक्रोश को राहत जरूर मिली हर बार की तरह। अब आते है मुद्दे पर की ये घटना बार बार हर बार क्यों रिपीट हो रही है? चूक कंहा हो रही है? तो कुच्छ ख़ाश उत्तर मिलेगा आपको। आइये बढ़ते है उस तरफ़। "ये भारत है जन्हा सबको अभिव्यक्ति की आजादी है, सरकारी जॉब सुरक्षा है, यहां हम सभी लोगों पर भरोसा करते हैं, सेकुलर कन्ट्री है। लेकिन तभी तक भरोसा करते है जब तक की वो भरोसा तोड़कर व्यक्तिगत हानि या आपसे जुड़े को हानि न पहुचाये। ये भरोसा तब तक यूँही टूटता रहेगा जब तक नीति नियामक का स्वयं ही उसमे शामिल न हो। ऐसा मैं इसलिए भी कह रहा हूँ कि कंधार जैसे उदाहरण भी है बताने के लिए। पर सवाल ज्यो का त्यों है आखिर कब तक?.

ऐसी दहशत गर्दी की बढ़ती घटनाओ के मद्देनजर हम 'पाकिस्तान मुर्दाबाद" छोड़कर हमे अपने यहां के आंतरिक सुरक्षा चक्र को अभेद बनाने की जरुरत है जिसको भेदना असंभव हो।दहशत गर्दी की घटनाओ पर अगर नजर डाले, चाहे वो गली की हो या संसद भवन की तो पाएंगे कि वो हमारी आंतरिक सुरक्षा की कमज़ोरी का परिणाम था। हम कई बार ऐसी निरन्तर हो रही घटनाओ से सीख नही ले रहे है।हम बार बार बस पडोसी मुल्क को गाली तो कभी अंतराष्ट्रीय पटल पर अलग थलग करने में जुटे है जो हमारा मुद्दा है ही नही। हमरा मुद्दा है कि ये चूक ना हो, सुरक्षा चक्र को कैसे अभेद बनाये। आप खून का बदला खून से लीजिये, एक के बदले 10 की जगह 50 सर लाइए, दहशत गर्दो को उनके कबिले में घुस कर मारिये, 56 इँच से मारिये या 60 इँच से लेकिन अभी नहीं। पहले आप आत्ममंथन कीजिये और सोचिये कि कोई आपके घर में बार बार हर बार घुस कर आपको चैलेंज देकर जा कैसे रहा है। दो चार या दस अंदर घुस आए दहशत गर्दो को मार गिराना समस्या का समाधान नही है। समाधान ये है कि उन्हें रोका कैसे जाये घुसने से, पहले अपना सुरक्षा चक्र अभेद कीजिये फिर बदला का सोचिये। उन खामियों को ढूंढ़ निकालिये और जितना जल्द सम्भव हो दूर कीजिये, जिनका फायदा उठा कर दहशतगर्द आपकी सीमा रेखा को पार कर अंदर तक आ जा रहे है। ये समय विलाप करने का नही है कि कितने शहीद हुए अब तक ये समय अफ़सोस करने का है कि दहशत गर्द आख़िर बार बार आपके सीमा के अंदर तक घुस कैसे आ रहे है और आपको पता क्यों नही चल पा रहा है?। लाहौर और इस्लामाबाद को कब्जे की या बलूचिस्तान और गिलगिट को अलग करने की सौगंध बाद में खाते रहिएगा। सबसे पहले इस बार इस बात को दिमाग में बैठाइए 56 इँच का सीना ठोककर कि अब दुबारा कोई आपके देश के सीमा के अंदर घुसकर हमारी सुरक्षा तंत्र को भेद ना पायेगा। फिर दुनियां देखेगी की भारत ने भी और विकसित देशों की तरह पहले अपनी आंतरिक सुरक्षा तंत्र को अभेद बनाया, फिर दुश्मन देश पर हमला कर खून का बदला खून से लिया, अगर जरुरत पड़ी तो। सोशल मीडिया पर अगर नज़र डालता हूँ, उरी घटना के प्रतिक्रिया के रूप में तो, बहुत से बुद्धजीवी पड़ोसी मुल्क के वजूद मिटाने की बात कर रहे है, बेशक मिटा डालिये। लेकिन अपने जहन में एक बात बैठा लीजिये कि, दहशत गर्द, सीमा-पार से आप पर हमला नहीं किया। वो कभी समंदर के रास्ते, तो कभी तार के बाड़े को पार कर देश की आंतरिक सुरक्षा तंत्र को भेद कर अंदर घुस आता है, अपने काम को अंजाम देकर चलते बनता हैं। चाहे वो संसद पर हमला हो, पठानकोट हमला हो या, उरी हो या होटल ताज पर हो। वो आपके हमारे आंतरिक सुरक्षा को तोड़ते है और अंजाम देकर चले जाते है या मार गिराए जाते है। प्रतिक्रिया में हम यँहा पान की दुकान से, राजपथ से या कभी लालकिले से कहते है ठोक देंगे, वजूद मिटा देंगे, छोड़ेंगे नहीं। मत छोड़िये, हमे अपने सेना की वीरता और नीति नियामक के धैर्य को सलूट करते है। परंतु आक्रोश में भी है कि पड़ोसी मुल्क के दहशत गर्द हमारे मुल्क में इतनी आसानी से घुस कैसे आते हैं और हम उन्हें नहीं रोक पाते, इस बात को सलूट करने को दिल नही करता साहब। साहब चाहो तो रक्षा बजट बढ़ा लो, टेक्स लगा लो, एक हफ्ते की सैलरी ले लो, प्रधानमंत्री सैनिक कोष में डालने का आहवाहन करो लेकिन पहले आतंरिक सुरक्षा को इतना मजबूत बना दो की कोई इसे भेद न पाए। ये देश के गरिमा का सवाल है, यूँही कोई दहशत गर्द टहलकर नही आ सकता सीमा के अंदर तक तो कश्मीर में सैनिक बेस तक तो कभी संसद तक। अगर दहशत गर्द बार-बार घुसपैठ करता है तो पहले आंतरिक सुरक्षा तंत्र को समीक्षा की दरकार है। बस एक बार वो ठीक हो जाए फिर कसम खुदा की आप भारत निर्मित विमान लेकर डंके की चोट पर लाहौर से इस्लामाबाद तक जाना और वजूद मिटाकर ही वापस आना, इस बार कोई समझौता भी मत करना। लेकिन दुश्मन को ठोकने से पहले अपनी सुरक्षा को और मजबूत बनाइये। एक बात और आंतरिक सुरक्षा वाहय सुरक्षा से अधिक महत्वपूर्ण है। अपने हो रहे व्यक्तिगत टिपणी या अपमान से ऊपर उठकर एक कूटनीतिक नीति अपनाकर स्वयं की कमियों को रेखांकित कर मजबूत किये बिना संभव नही है। युद्ध लालसा वाले लोगो की युद्ध महत्वाकांक्षा भभकती ही रहेगी क्योंकि मन से और जेहन से सिर्फ जहर ही निकलता है। ऐसा जहर जिससे वर्तमान तो घुटता ही है, भविष्य के मुख पर भी कालिख पुत जाती है। ध्यान रहे, हर जलने वाले की अंतिम परिणती राख ही है और एक खास अहम् बात युद्ध-अभिलाशियो "मासूमो के खून में नहाई जीत, जीत नही होती"। सनद रहे मासूम दोनों तरफ होंगे और दुनियां समझौते वाले दिलासों पर ही चलती है।

#देश ही पहले देश ही बाद में

जय हिंद


 
 
 

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